भाषा हमारी शालीनता और व्यक्तित्व की परिभाषा है। भाषा हमारी संस्कृति, संस्कार और उन्नति की मूल है। भाषा हमारा सौंदर्यबोध है। भाषा हमारे अतीत और व्यतीत का दर्पण है। मानव सभ्यता के विकास में भाषा का अमूल्य योगदान है। जिस तरह एक बुरी संस्कृति एक सभ्य समाज का निर्माण नहीं कर सकती, उसी तरह एक असंयमित भाषा भी हमारी सभ्यता को गहरे गर्त में धकेलती है। एक अच्छी भाषा हमारा संस्कार होती है। जिस तरह हमें जीने के लिए वायु की जरूत होती है उसी तरह जीवन की गतिशीलता और सार्वर्भौमिक विकास के लिए अच्छी भाषा चाहिए होती है। हमारे पास दुनिया की समस्त आधुनिक सुविधाएं भले हों, लेकिन भाषा के अभाव में जीवन दर्शन बेमतलब है। एक उन्नतिशील राष्ट्र के निर्माण के लिए एक संस्कारित भाषा का होना आवश्यक है। भाषा शिष्ट, विशिष्ट और शालीन होनी चाहिए। भाषा से गिरने का मतलब हम चरित्र से भी गिरे हुए हैं। क्योंकि भाषा हमारे व्यक्तित्व का दर्पण होती है। जब हम ओजपूर्ण शैली में बोलते हैं तो हमारी भाषा हमारे व्यक्तित्व को वैशिष्ट बनाती है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भाषा को संस्कृति और समाज का दर्पण माना। उन्होंने भाषा को सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं माना। वे मानते थे कि भाषा में शालीनता और शिष्टता समाज के नैतिक मूल्यों को दर्शाती है। उनके अनुसार, भाषा का प्रयोग ऐसा होना चाहिए जो विचारों को स्पष्ट और प्रभावी ढंग से व्यक्त करे, लेकिन साथ ही वह दूसरों के प्रति सम्मान और संवेदनशीलता को बनाए रखे। प्राचीन भारतीय दार्शनिक पाणिनि भर्तृहरि ने संस्कृत व्याकरण और दर्शन में भाषा को विश्व की समझ और आध्यात्मिक चेतना का माध्यम माना गया। भर्तृहरि ने शब्दब्रह्म सिद्धांत में कहा कि भाषा और चेतना अभिन्न है। विदेशी विद्वान विल्हेम वॉन हम्बोल्ट भाषा को केवल संचार का साधन नहीं, बल्कि मानव विचार और संस्कृति की रचनात्मक अभिव्यक्ति माना। उन्होंने कहा कि प्रत्येक भाषा एक अनूठा विश्वदृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। यानी वैश्विक विकास एवं सभ्यता के मूल में भाषा है।
भाषा सिर्फ संचार या संवाद का माध्यम नहीं है। भाषा हमारी संस्कृति और समाज का आधार है। भाषा यह साबित करती है कि हमारी सभ्यता, संस्कार और सामाजिक विकास एवं इतिहास की जड़ें कितनी गहरी हैं। हम शालीन भाषा से समाज में अपना संदेश मजबूती से पंहुचा सकते हैं। दुनिया में अनगिनत काबिलियायी समूह हैं लेकिन उनकी भाषा वैसी नहीं होती है। हम अपने को आधुनिक और सभ्य भले कह ले, लेकिन जब तक हमारे पास शालीन भाषा नहीं होगी हमें सभ्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं है। हमारी भाषा ही हमारी सभ्यता हैं। हमारी भाषा जितनी संयमित होगी उतने हम भी शालीन होंगे। ग्लोबलइजेशन के दौर में जहाँ हमारी भाषा संवृद्ध और सशक्त हुईं है, वहीं उससे कई गुना उसका पतन हुआ है। हमने भाषा को लेकर अपना संयम और चरित्र खोया है। हम चांद पर भले पहुँच गए हैं, लेकिन उससे कहीं अधिक गहराई में भाषा को लेकर हम गिरे हैं। भाषा को लेकर हम इतने गिरे हैं कि हमारे पास उसे मापने के लिए कोई पैमाना नहीं है। क्योंकि हम चरित्र और भाषा दोनों से गिर रहे हैं। शायद यह मानव सभ्यता का अधोपतन है।
चिंतन इस बात का है कि गिर कौन रहा है। भाषा गिर रहीं है या हम गिर रहे हैं। भाषा सकाम कर्म नहीं कर सकती। वह निर्जीव होते हुए भी सजीव है। वह हमारी मार्गदर्शक है। भाषा का कोई रुप, रंग, गंध और स्वाद, स्पर्श नहीं है, लेकिन इसके बाद भी वह समस्त रूपों में विद्यमान है। जिस तरह हम ठोस स्वर्ण को आभूषणों के विभिन्न रंग में ढाल देते हैं और वह हमारा सौंदर्य बन जाता है। ठीक उसी प्रकार हमारी भाषा है। वर्चुवल मंच के उदय के बाद हमारी भाषा में भदेश बढ़ा है। हमने वैचारिता और जय-पराजय के चौसर पर भाषा को द्रौपदी बना दिया है। जबकि टीवी पत्रकारिता और सोशलमीडिया ने आग में घी का काम किया है। हम भाषा का चीरहरण कर रहे हैं। जबकि सच बात यह है कि भाषा नहीं, नंगे हम हो रहे हैं। सत्ता और सिंहासन का खेल हमारी सभ्यताएं डूबने को बेताब है। विशिष्टता की होड़ में हमने अपने शिष्टता को गिरवी रख दिया है। भाषा के साथ जिस तरह की भांडगिरी हो रहीं है उससे खुद भाषा लज्जित और शर्मसार है।
भाषा हमारी रीढ़ है। भाषा हमारी शालीनता, सभ्यता, संस्कार, नैतिकता, एकता और अखंडता है। अगर मेरी भाषा मर्यादित है तो निश्चित रुप से मेरा जीवन संयमित एवं मर्यादित है। भाषा ही हमारी आइडियोलॉजी की लक्ष्मण रेखा है। अशिष्ट भाषा हमारे समाज को बांटती है। सोचिए, अगर हमारे पास एक सभ्य भाषा की मिठास नहीं होगी तो क्या हम एक सौहार्दपूर्ण समाज की स्थापना कर पाएंगे। भाषा में वह तागत है जो हमें माधुर्य और वस्तु के तीखेपन का आभाष कराती है। आम का नाम लेते ही हमें उसके मिठास का स्वाद मिलने लगता है। जबकि आम को हमने खाया नहीं। ठीक उसी तरह यह नियम मिर्च पर भी लागू होती है। मतलब साफ है हमारी भाषा में आम की मिठास और मिर्च का तीखापन दोनों हैं, अब आप किसका स्वाद लेना चाहते हैं यह आप पर निर्भर है। हम सभ्यता के कई आयाम तय कर चुके हैं। भाषा के तकनीकी विकास को लेकर भी हमने नई दिशा तय किया है। लेकिन अभी भाषा की अराजकता पर हमें बहुत कुछ करना है। हमें यह तय करना होगा कि वाकयुद्ध के इस संघर्ष में कहीं हम इतने पीछे न छूट जाय कि फिर वहां से लौटना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हो जाय।
प्रभुनाथ शुक्ल